Sunday, May 25, 2014

नदी प्रबंधन व विकास


गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा,
कावेरी शरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका,
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी,
पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु मे मंगलम्॥

ब्रह्मपुत्र सरीखे महानद की बात हो, सागर तटीय विस्तार या सिंधु-सरस्वती सभ्यता की, कृष्णा-कावेरी की, या गंगा-जमुनी संस्कृति की, भारतीय संस्कृति जल केन्द्रित संस्कृति है। भारत की बहुचर्चित समस्याओं में नदी जल प्रदूषण भी एक है। नगर पालिकाओं, अनियंत्रित कारखानों, और अज्ञानी समूहों द्वारा प्रदूषित किया जाता जल मानव के साथ पशु-पक्षियों, विशेषकर जल-प्राणियों के लिए भी क्षतिकर है। लेकिन बात प्रदूषण पर ही नहीं रुकती। प्रमुख नदियों में बाढ़ से हर साल होने वाली जन-धन की हानि बहुपक्षीय है। मेरे खेत के बीच से गुज़रने वाली नदी खेत को हर बरसात में अपनी मर्ज़ी से काटती-छाँटती रहती है। चौमासे में जब ऐसी छोटी नदियाँ प्रमुख नदियों में मिलती हैं तब गाँव के गाँव बह जाते हैं, मिट्टी की उपजाऊ परतें बह जाती हैं। बाढ़ में आई मिट्टी और मलबा नदियों की गहराई को कम करके बाकी वर्ष में उसके प्रवाह को भी बाधित करता है। आइये देखते हैं, नदियों के समग्र विकास के लिए और क्या क्या किया जा सकता है, क्या-क्या किया जाना ही चाहिए।

समस्या
  • विभिन्न प्रकार के प्रदूषण
  • सूखे-बाढ़-भूस्खलन आदि की विभीषिका
  • मूर्ति विसर्जन आदि कार्यक्रमों के प्रभाव 
  • डूबने से होने वाली मृत्यु
  • अवैध वालुका-पाषाण खनन
  • अवैध मत्स्य-जलजीव-दोहन
  • जल परिवहन

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति, नर्मदे सिंधु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥

कुछ अवलोकन और सुझाव

प्रदूषण पर रोक
चाहे कारखानों से आने वाला प्रदूषण हो चाहे नगरपालिकाओं के जल-मल द्वारा, उसे हर हाल में नदीजल में मिलने से रोका जाये। नियमों के हर उल्लंघंकर्ता को पर्याप्त सज़ा दी जाये। नगर निगमों की लापरवाही की स्थिति में पार्षदों, अधिकारियों आदि की ज़िम्मेदारी निश्चित करके उन्हें भी चेतावनी और सज़ा दी जाये। स्कूली शिक्षा में प्रदूषण के दुष्प्रभावों के साथ उनसे बचाव के तरीके भी बताए जाएँ।  

तटबंध
पक्के तटबंध नदियों को सीमाबद्ध रखने में सहायक सिद्ध होते हैं। आरंभ प्रमुख नदियों पर बसे प्रमुख नगरों से किया जा सकता है। इस पहल के लिए काशी एक अच्छा उदाहरण सिद्ध हो सकता है जहां गंगा पर संसार भर से तीर्थयात्री आते हैं। पुराने बने घाटों का पुनरुद्धार हो। जिस ओर किनारे नहीं हैं वहाँ जलचर जीवन को प्रभावित किए बिना नव-निर्माण किया जाये।

अंतिम संस्कार
देश भर की नदियों के लिए सामान्य अन्य प्रदूषणों के साथ-साथ काशी में गंगातीर पर एक अन्य कार्यक्रम भी बड़े स्तर पर प्रदूषण में सहायक हो रहा है। विभिन्न स्थलों पर हो रहे क्रियाकर्म को भी नियमन की आवश्यकता है। बहाये गए या अधजले शव तथा अन्य दहन-संस्कार सामग्री को नदी के जल में मिलने से रोकना चाहिए। काशी जैसे प्रमुख संस्कार स्थल पर विद्युत शवदाह की समुचित व्यवस्था भी होनी चाहिए। यदि और कोई तरीका काम नहीं करता तो धारा को दो भागों में बांटकर संस्कार क्रिया व स्नान क्रिया की धाराएँ अलग-अलग रखी जा सकती हैं ताकि शवदाह क्षेत्र का बेहतर प्रबंधन हो सके। शवदाह-क्षेत्र का जल शोधित करने के बाद ही मुख्य धारा में वापस मिलाया जाये।

नदी की गहराई और अवैध वालुका-पाषाण खनन
देश में नदी समस्या का एक प्रमुख कारण नदियों का उथला होना भी है। समय के साथ नदियों में आई रेत-मिट्टी-बजरी आदि उन्हें उथला करती जाती है। किनारे के खेतों की कटान और बाढ़ में बहाकर लाये गए मलबे से भी गहराई पर असर पड़ता है। बड़े-बड़े बांधों में पानी को रोककर रखे जाने से नदी का प्रवाह भी धीमा हो जाता है, इस कारण भी रेत नदी तल पर इकट्ठी होती रहती है। जलजीवन को क्षति पहुंचाए बिना, पत्थर और बजरी के वैज्ञानिक, योजनाबद्ध नियमित, और नियंत्रित खनन से नदी की प्रशस्त गहराई बनाये रखी जा सकती है और उनकी जलधारण क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। इससे नदी के जलचर जीवन सहित नदी परिवहन, जल-क्रीडा आदि की भी वृद्धि होगी।

राष्ट्रीय पुल नीति
पुल निर्माण की एक राष्ट्रीय नीति बने जिससे पुलनिर्माण के ऐसे नियमों (यथा, मानक ऊंचाई) का पालन निश्चित किया जा सके जो पर्यावरण, जलचर जीवन और जल-परिवहन के अनुकूल हों।

नदी जल परिवहन
देश में नदियों के सघन जाल होने के बावजूद नदी जल परिवहन की संभावनाओं का संचित दोहन अब तक नहीं हुआ है। ऊंचे नीचे अनियमित पुल, घाटों का अभाव, गहराई की कमी, बांधों द्वारा जल की अवैज्ञानिक रोक के साथ साथ जल-परिवहन की पारदर्शी नीति का अभाव आदि जैसे अनेक कारणों से देश में जल परिवहन लगभग अनुपस्थित है। उचित परियोजनाओं द्वारा कमियों का निराकरण करके जल परिवहन को प्रोत्साहित किया जाये तो परिवहन की लागत में कमी आने के साथ-साथ रेल और सड़क मार्ग पर बढ़ता दवाब तो कम होगा ही, जल परिवहन से संबन्धित वे उद्योग जो आज तक उपेक्षित रहे हैं, आगे बढ़ेंगे।

बांध नियमन
बांध बनाते समय यह ध्यान रखा जाये कि वे नदियों को सुखाने का काम न करें। वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा हर नदी क्षेत्र के लिए एक नियमित प्रवाह तय किया जाये और उसे यथासंभव बनाए रखा जाये। नदियों की गहराई, पक्के किनारे बनाकर यदि उनकी जल-धारण क्षमता बधाई जाती है तो बांधों पर निर्भरता वैसे भी कम हो जाएगी और हर साल आने वाली नियमित बाढ़ विभीषिकाओं से भी बचा जा सकेगा।

अवैध मत्स्य-जलजीव-दोहन
जलचर दोहन ने देश की नदियों का बड़ा अहित किया है। अनियंत्रित मत्स्याखेट के चलते मछलियाँ, कछुवे आदि की संख्या तो कम हो ही रही है, सोंइस/शिशुक (Ganges-Indus blind dolphin) जैसे कितने ही जलचर लुप्तप्राय हो चुके हैं। व्यक्तिगत रूप से मैं जीवहत्या के विरुद्ध हूँ, फिर भी यदि सरकार इसे ज़रूरी मानती भी है तो सीमित समय के लिए वैध राजाज्ञा के बिना किसी भी प्रकार का शिकार गैरकानूनी घोषित किया जाना चाहिए। राजाज्ञा पाने वाले व्यक्तियों से पर्यावरण रक्षण के प्रति निष्ठा व्यक्त करने और निश्चित नियमावली का पालन करने का वचन लिया जाना चाहिए और राजाज्ञा शुल्क से प्राप्त आय को जलचर संरक्षण और प्रवर्धन के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए।

मूर्ति विसर्जन आदि कार्यक्रम और डूबने से होने वाली मृत्यु
देश की समस्याओं का निराकरण देश के नागरिकों और परम्पराओं के दमन से नहीं होता। इसके लिए परम्पराओं और नागरिकों के ज्ञान और सहयोग का सहारा लिया जाना चाहिए। विभिन्न पर्वों के बाद आयोजित मूर्ति विसर्जन कार्यक्रमों में हर बार कितने ही लोगों, विशेषकर किशोरों की अकालमृत्यु की खबरें आती हैं क्योंकि इन कार्यक्रमों में भी देश के अन्य स्थलों की तरह अनियमितता और अव्यवस्था का राज होता है। अधिकांश भागीदारों को तैरना नहीं आता है। पुलिस प्रशासन भी नहीं होता है और न ही प्राथमिक चिकित्सा और एंबुलेंस की व्यवस्था होती है। ऐसे समारोहों के लिए निश्चित नियम बनें और उनका कड़ाई से पालन हो। मेरे मन में आए कुछ विचार निम्न हैं:
  • मूर्ति विसर्जन के लिए अलग घाट बनें जिनकी गहराई कम हो 
  • जीवन रक्षक तैराकों, गोताख़ोरों और पुलिस की विशेष व्यवस्था हो।
  • केवल परंपरागत ढंग से बनी उन biodegradable मूर्तियों को ही विसर्जन की इजाज़त हो जिनमें किसी विषाक्त पदार्थ, रंग आदि का प्रयोग न हुआ हो।
  • अनुज्ञप्त मूर्तियों के आकार और भार की सीमा तय हो और विसर्जन क्षेत्र के प्रवेशद्वार पर इन मानकों की जांच हो। 
  • बेहतर तो यह होगा कि इन मानकों से रहित मूर्तियों के विक्रय पर ही रोक लगे। 
  • हर उल्लंघन और दुर्घटना पर कड़ी कार्यवाही की जाये। 
  • पर्व के दिनों में छात्रों को स्कूलों में पर्यावरण और व्यक्तिगत सुरक्षा की जानकारी दोहराई जाए। 
  • समारोह के बाद विसर्जन-क्षेत्र का जल शोधित करने के बाद ही मुख्य धारा में मिलाया जाये। 
जल-क्रीड़ा व प्रशिक्षण
नदी-तट कें क्षेत्रों के विकास, जल-क्रीड़ा और पर्यटन का विकास किया जाना चाहिए। ध्यान यह रहे कि इसमें मनोरंजन और धनार्जन के साथ-साथ सामाजिक सहयोग और सशक्तीकरण भी जोड़ा जा सके। जिसके लिए इन क्षेत्रों में तरण ताल बनाकर स्थानीय बच्चों को तैराकी और संबन्धित कौशल व खेलों में प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाने चाहिए।

जल-पुलिस
केंद्रीय बलों की तर्ज़ पर आधुनिक सुविधाओं से युक्त जल पुलिस संगठन का गठन किया जाना चाहिए जो नदी जल-क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था और जल परिवहन नियमन के साथ-साथ नदी-पर्यावरण के विरुद्ध होने वाले अपराधों की रोकथाम कर सके।

केंद्रीय नदी-जल समेकित संस्थान
यदि कोई केंद्रीय संस्थान देश भर की नदियों की समेकित ज़िम्मेदारी का वहन कर सके तो प्रदूषण,मत्स्य-पालन, या परिवहन आदि के लिए अलग अलग आधी-अधूरी परियोजनाओं में संसाधनों की बरबादी से बचा जा सकेगा। नीति व नियम निर्धारण और अनुपालन के लिए ऐसे केंद्रीय संगठन का निर्माण किया जाना चाहिए जो राज्यों और नगर पालिकाओं के सहयोग से राष्ट्र की नदियों, नहरों आदि की ज़िम्मेदारी ले सके और आपद्काल में जन-सुरक्षा के काम में सहयोग भी कर सके।



5 comments:

  1. सार्थक निरूपण!!

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  2. वाह आपने बहुत अच्‍छा लि‍खा है. सभी ये बाते जानते भी हैं. पर दि‍क़्कत यही है कि‍ बि‍ल्‍ली के गले में घंटी कोई बांधना ही नहीं चाहता क्‍योंकि‍ इसके पीछे हज़ारों करोड़ रूपये का खेल भी है.

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  3. बहुत अच्छा लेख। सभी सुझाव उपयोगी हैं। इनके अतिरिक्त नदियों के जल भराव क्षेत्रों पर अवैद्य कब्जों और एनीकट की समस्या भी विकराल हो चुकी है। इसका समाधान भी जरुरी है।

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  4. अच्छा लेख है. काश नीति बनाने वाले भी पढ़ें.
    घुघूती बासूती

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मोडरेशन चालू है ताकि आपके पीछे-पीछे कोई स्पैमर न चला आए। धन्यवाद!